नई दिल्ली( 18 जुलाई ): भगवान जगन्नाथ रथयात्रा आज निकाली जा रही है। परंपरा के मुताबिक गुजरात के मुख्यमंत्री आनंदीबेन ने भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के रास्ते को साफ किया। इसके पहले प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो वो इस यात्रा का रथ खींच कर शुरूआत किया करते थे। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री इस यात्रा में शामिल नहीं हो रहे हैं और भगवान जगन्नाथ के लिए जामुन और मूंग का प्रसाद भेजा है। देश के अलग-अलग हिस्सों में यह रथयात्रा निकाली जाती है।
क्यों खास होती यह रथयात्रा
पुराणों के अनुसार जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है। जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्यों की एक सेना है जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गई है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे जो अपने को जगन्नाथ का भृत्य समझते थे। जगन्नाथ रथयात्रा आरंभ होने की शुरुआत से ही पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से भगवान जगन्नाथ जी के रथ के सामने झाडु लगाते हैं। इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। कई पारंपरिक वाद्ययंत्रों की ध्वनि के बीच विशाल रथों को सैकड़ों लोग मोटे-मोटे रस्सों से खींचते हैं।
सबसे पहले बलभद्र यानी भाई बलराम जी का रथ तालध्वज में प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद बहन सुभद्रा जी का रथ चलना शुरू होता है। अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। मान्यता है कि सहयोग से रथ खींचने में मोक्ष मिलता है। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंदेचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। 'गुंदेंचा मंदिर' वहीं है, जहां विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। इसे 'गुंदेचा बाड़ी' भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। सूर्यास्त तक यदि कोई रथ गुंदेचा मंदिर नहीं पहुंच पाता तो वह अगले दिन यात्रा पूरी करता है। गुंदेचा मंदिर में भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं। इस बीच इनकी पूजा अर्चना यहीं होती है। काशी की तरह जगन्नाथ धाम में भी पंच तीर्थ हैं जो कि क्रमशः मार्कण्डेय, वट (कृष्ण), बलराम, समुद्र और इन्द्रद्युम्न सेतु माने जाते हैं।
आषाढ़ शुक्ल दशमी को भगवान जगन्नाथ जी की वापसी रथ यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। शाम से पूर्व ही रथ जगन्नाथ मंदिर तक पहुंच जाते हैं। जहां एक दिन प्रतिमाएं भक्तों के दर्शन के लिए रथ में ही रखी रहती हैं। अगले दिन प्रतिमाओं को मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में पुन: स्थापित कर दिया जाता है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की सौम्य प्रतिमाओं को श्रद्धालु एकदम निकट से देख सकते है। भक्त एवं भगवान के बीच यहां कोई दूरी नहीं रखी जाती। काष्ठ की बनी इन प्रतिमाओं को भी कुछ वर्ष बाद बदलने की परंपरा है। जिस वर्ष अधिमास रूप में आषाढ़ माह अतिरिक्त होता है उस वर्ष भगवान की नई मूर्तियां बनाई जाती हैं। यह अवसर भी उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
0 comments:
Post a Comment