Sunday, 14 June 2015

लालू-नीतीश के साथ आने से ऐसे फायदे में रहेगी भाजपा, आप भी जानें

कांग्रेस ने बिहार चुनाव के लिए अच्छा होमवर्क किया है। उसने 'चुनाव कैसे जीतें' नाम की अमित शाह की किताब का पहला पन्ना ही चुरा लिया है। उस पहले पन्ने पर अमित शाह के विजयी फॉर्मूले का पहला सूत्र लिखा था- विपक्ष को विभाजित रखो।

अमित शाह ने यह काम देश भर में कर दिखाया है। खास तौर पर वहां, जहां बीजेपी के वोट 25-30 प्रतिशत के करीब हैं।

गिनते जाइए- हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और सबसे बड़ा नाम- यूपी। इन सारे राज्यों में बीजेपी के लिए ज़रूरी रहा कि मुक़ाबला तिकोना या चौतरफ़ा रहे। तिकोने या चौतरफ़ा मुकाबले में बीजेपी के 25-30 प्रतिशत वोट आसानी से जीत दिला देते थे।

दांव
कई बार पिटने के बाद कांग्रेस यह दांव समझ गई? बिहार में नीतीश कुमार को लालू प्रसाद से सीएम उम्मीदवार घोषित करवाकर कांग्रेस यह मान सकती है कि उसने बीजेपी का विजय मंत्र बेअसर कर दिया है। लेकिन अमित शाह की उसी किताब में और भी पन्ने हैं। पहला पन्ना फट गया, तो अब किताब दूसरे पन्ने से पढ़ना शुरू की जाएगी।

मजेदार बात यह है कि लालू-नीतीश-कांग्रेस गठजोड़ ने दूसरे पन्ने की इबारत की कल्पना किए बिना ही पहले पन्ने का रट्टा मार दिया लगता है। सबसे पहला सेल्फ-गोल दागा है 'नॉन प्लेइंग कैप्टन' लालू प्रसाद ने। उन्होंने कहा कि हम सेक्युलरिज्म की खातिर एकजुट हुए हैं।

और यह भी कहा कि मैं सबसे बड़ा सेक्युलरिस्ट हूं। लालू को इस बात का डर है कि करीब 60 विधानसभा सीटों पर 17 प्रतिशत और पूरे बिहार में करीब 14 प्रतिशत मुस्लिम वोट कहीं (उत्तर प्रदेश की तरह) बँट न जाएँ।लालू जितने बड़े सेक्युलरिस्ट बनने की कोशिश करेंगे, सारे ग़ैर-मुस्लिम वोट आपसे उतने ही दूर होते जाएंगे, महाराष्ट्र या हरियाणा के चुनाव अमित शाह ने मुस्लिम वोट बंटने या न बंटने के आधार पर नहीं जीते थे।

जिस आधार पर जीते थे, लालू प्रसाद ने उसी आधार को बार-बार मज़बूत किया है। जैसे कि बीजेपी की जीत का पहला ठोस आधार था कि वोटर चाहे जो भी हो, जिस भी जाति का हो, जहां भी हो, वह पिटे-पिटाए नेताओं से अघा चुका था।

सड़ी-गली पूरी राजनीति को नए चेहरों और नई राजनीति से चुनौती देने की इस रणनीति को शरद पवार समझ गए थे। गौर कीजिए, कांग्रेस ने महाराष्ट्र में भी कोशिश की थी कि शरद पवार मुख्यमंत्री पद के दावेदार बन जाएं, जिसे चतुर पवार ने नकार दिया था। यहाँ पवार जैसी समझ दिखाने में लालू और नीतीश कुमार चूक गए हैं। उल्टे एक साथ आकर उन्होंने बीजेपी का काम आसान कर दिया है।

लालू-नीतीश-कांग्रेस एकता का ही दूसरा पहलू यही है कि सारे लालू विरोधी, नीतीश विरोधी, कांग्रेस विरोधी मतदाताओं के सामने अब बीजेपी एकमात्र विकल्प है।

बीजेपी की जीत का दूसरा आधार था विकास का वादा। यह मतदाता को सीधा निमंत्रण था कि आप बाकी सारे मुद्दों को परे रखकर इस मुद्दे पर अपना वोट दें।

पूरे सेक्युलर कुनबे के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। अब विकास और सुशासन इतने बड़े मुद्दे बन चुके हैं कि आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि बिहार उन्हें पूरी तरह दरकिनार करके अपनी पुरानी लकीर पर चलेगा।इससे पहले अमित शाह अपनी किताब का तीसरा पन्ना खोलते, नई राजनीति की बिसात बिछाते, लालू और नीतीश ने अपनी चाल चल दी है। लालू और नीतीश इकट्ठे हुए हैं पुराने फार्मूलों पर आधारित, पुरानी राजनीति के लिए, दो ब्राह्मण प्लस, दो भूमिहार बराबर छह दलित जैसी जुगत लगाने के लिए।

अब लालू और नीतीश अगर अपनी एकजुटता को जायज़ ठहराने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें सारी बहस को विकास की बातों से परे और जातिवाद-सेक्युलरिज्म के मुद्दों पर अनिवार्य तौर पर ले जाना होगा।

अगर वे विकास के मुद्दे पर भी टांग अड़ाते हैं तो एक-दूसरे को ज़हर बताकर पी जाने जैसे सुसाइड नोट वाले बयान देने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकेंगे। फिर यह अमित शाह की किताब के भीतरी पन्नों की इबारत नहीं है। वास्तव में इस किताब के भीतरी पन्नों में एक ही वाक्य लिखा है- हमेशा नई इबारत लिखो, और नई इबारत लिखने के लिए बिहार चुनाव एक बहुत अच्छा विषय है।

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