नई दिल्ली: पिछले कुछ सालों में हिंदी फिल्मों में द्विअर्थी गीत-नृत्य और अंग प्रदर्शन बढ़े हैं, लेकिन राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेत्री विद्या बालन कहती हैं कि परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है. उनका कहना है कि भारत में अभिनेत्रियां उस मुकाम पर हैं, जहां वे पर्दे पर स्वयं को 'भोग्या' बनाए जाने से इंकार कर सकती हैं.विद्या से पूछा गया कि बॉलीवुड में अभिनेत्रियों को उपभोग की वस्तु के रूप में दिखाए जाने को किस तरह लेती हैं? जवाब में उन्होंने मुंबई से फोन पर आईएएनएस को बताया, "समय बिल्कुल बदल गया है."
उन्होंने कहा, "मैंने यह बदलाव पिछले पांच-छह सालों में 'इश्किया' या 'नो वन किल्ड जेसिका' जैसी फिल्मों में काम करने के दौरान देखा. मेरा मानना है कि अभिनेत्रियों की अब पर्दे पर उपभोग की वस्तु के रूप में आने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे महसूस करती हैं कि वे अब इस पर आपत्ति कर सकती हैं. यही वजह है कि अब रूपहले पर्दे पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु के रूप में ज्यादा नहीं दिखाया जाता.
विद्या ने 'परिणीता' (2005) फिल्म से रूपहले पर्दे पर कदम रखा था. उन्होंने 'इश्किया', 'नो वन किल्ड जेसिका', 'कहानी', 'पा' और 'द डर्टी पिक्चर' जैसी फिल्मों से अपने अभिनय का लोहा मनवाया है.
अपनी पिछली फिल्म 'हमारी अधूरी कहानी' में वह एक लाचार महिला की भूमिका में नजर आईं, जो घरेलू हिंसा झेलती है.
विद्या असल जिंदगी में एक खुशहाल विवाहिता महिला हैं. उन्होंने कहा, "मैं अगर घरेलू हिंसा की बात करूं तो यही कहूंगी कि मैं इसे कभी नहीं समझ पाई. मैं आजादी और स्वछंदता के माहौल में पली-बड़ी हूं. मुझे यह समझ नहीं आता कि कोई, विशेषकर एक महिला मारपीट और गाली-गलौज चुपचाप क्यों सहती रहती है. इसलिए इस भूमिका के लिए मुझे इन चीजों को स्वीकार करने के लिए पहले स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करना पड़ा."
उन्होंने कहा, "मुझे अहसास हुआ कि मुझे बस घरेलू हिंसा ही नहीं, बल्कि इस पर भी यकीन करना होगा कि आप वास्तव में अपने पति की संपत्ति हैं और हम भारतीयों में यह रवैया काफी प्रचलित है."
विद्या को यह भी लगता है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर महिलाएं उन पर होने वाले अत्याचारों से छुटकारा पा सकती हैं.
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