Wednesday, 12 August 2015

काँवड़िए लोगों की दुआएँ और आशीर्वाद के बजाय श्राप बटोरते हैं

किसी भी धर्म या उपासना पद्धति की हो. समझदार और बुद्धिजीवी किस्म के लोग धार्मिक आस्थाओं से जुड़ी पेंचीदगियों पर चर्चा करने से इसलिए कतराते हैं कि उन्हें लगता है कि हमारा जनमानस तथ्यों को समझने की मनोदशा में ही नहीं है. लेकिन मेरा मानना है कि प्रयास जारी रखना चाहिए. इसलिए हमें काँवड़ियों से जुड़े समाज शास्त्र और अर्थशास्त्र को भी जानना चाहिए.देश में सावन का महीना अपनी निराली रंगत लेकर आता है. बारिश का मौसम धरती की खुशबू में कहीं सोंधापन तो कही मादकता भर देता है. वनस्पति जगत की हरियाली चमचमा उठती है. फ़िज़ा में उमंग तो दिखती है, लेकिन खुशहाली नहीं. जबकि खुशहाली सावन की बुनियादी ख़ासियत है. दरअसल, बदलते दौर के साथ सावन में समाहित खुशहाली का हरण हो चुका है. कमोबेश, वैसे ही जैसे रावण ने सीता का हरण किया था. काश! देश का बहुसंख्यक हिन्दू समाज और ख़ासकर उनके धार्मिक नेता इसे समझ पाते और अपने अनुयायियों का सही मार्गदर्शन करते.

बात सिर्फ़ इतना तय करने की है कि क्या हमारे धार्मिक संस्कार हमें ये नहीं सिखाते कि अपनी खुशी के लिए हमारा किसी और को जाने या अनजाने में तकलीफ़ पहुँचाना पूर्णतः और विशुद्ध रूप से अधर्म है, पाप है! हमें इससे बचना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से सावन में उमड़ने वाले काँवड़िए और उनके सेवादारों को शायद यही बह्म-ज्ञान नहीं है. इसलिए काँवड़ियों के मौसम में बहुत बड़ी आबादी दहशत और ख़ौफ़ के बीच जीती है. ये पूरी तरह से अधार्मिक है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की करोड़ों की आबादी के जनजीवन पर काँवड़ियों का असर किसी टिड्डी दल के हमले की तरह होता है. दिल्ली और इससे सटे हरियाणा-राजस्थान के मुख्य मार्गों, गली-मोहल्लों के लिए सावन और कांवड़िए किसी मानव-निर्मित प्राकृतिक आपदा से कम नहीं हैं. जिनका नियत समय पर आना तय बन चुका है. क्या हमें इस परिवेश को बदलने के लिए आगे नहीं आना चाहिए?

हरिद्वार के चारों ओर बसे 20-25 ज़िलों में जो लोग रहते हैं, उन्हें सावन में काँवड़ियों की टोलियों को अपने आस-पास से गुज़रते हुए देखकर यदि कोई धार्मिक श्रद्धा का अहसास होता है तो वो क्षणिक ही रहता है. क्योंकि वास्तव में काँवड़ियों की गतिविधियों से उनका जीना मुहाल हो जाता है. पुलिस और प्रशासन पर अज़ीबोग़रीब सकपकाहट हावी रहती है. जगह-जगह ट्रैफिक जाम रहता है. हर तरफ लोगों में गुस्सा और चिड़चिड़ाहट दिखायी देती है. सड़कों के किनारे बसे होटल-ढाबे वाले अपना काम-धंधा बन्द कर देते हैं क्योंकि जब कोई उनके पास रुकेगा ही नहीं तो वो क्या कमाएँगे-खाएँगे! ये काँवड़ियों के अर्थशास्त्र का बहुत दुःखद पहलू है. करोड़ों लोगों की आमदनी इस मौसम में शून्य हो जाती है.

सैकड़ों की संख्या में स्कूलों-कालेजों को मज़बूरन छुट्टियाँ करनी पड़ती हैं, क्योंकि सड़कों पर ट्रैफिक बन्द कर दिया जाता है. लाखों-करोड़ों वाहन सड़कों पर दौड़ते नहीं, बल्कि रेंगते हैं. वो करोड़ रुपये का पेट्रोल-डीज़ल नाहक जलाने के लिए मज़बूर होते हैं. इससे देश के उस बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भंडार पर बुरा असर पड़ता जिससे हम पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करते हैं. अनन्त और निरन्तर जाम के दौरान वाहनों से इतना प्रदूषण होता है, जिसके नुक़सान का आंकलन करना तो अभी हिन्दुस्तान के मिज़ाज़ में ही नहीं है. काँवड़ियों के दबदबे वाले दौर में मुसलमान उनके आसपास फटकने से बचते हैं, क्योंकि न जाने कौन सी बात साम्प्रदायिक उन्माद की शक्ल अख़्तियार कर ले! ये कैसा धार्मिक आचरण है जो सामाजिक समरसता को ललकारता है!

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